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Editorial/सम्पादकीय

उल्लूओं के माध्यम से उल्लूओं की करतूतों का ब्योरा : उल्लूकपुर का साम्राज्य

जिनके बोली, भाषा, विचार और जाति एक होते हैं, वे सब मिलकर एक समाज बनाते हैं। पक्षियों और अन्य जानवरों का भी ऐसा कोई समाज होता होगा, ऐसी कल्पना की जा सकती है। आजकल साहित्य की सभी विधाओं में नवीन प्रयोग हो रहे हैं। ऐसे में लेखक जयनारायण कश्यपजी का उपन्यास “उल्लूकपुर का साम्राज्य” विभिन्न जीव-जंतुओं के माध्यम से मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों का ब्योरा है, जो उसके विकास के साथ नज़र आ रहा है।

उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि लेखक इस कृति के बहाने, आज के समय से पर्दा हटा रहे हैं। आज मनुष्य, मनुष्य के विरुद्ध ही हथियार बन रहा है। वह शेष प्रकृति और पृथ्वी के बारे में कुछ नहीं सोच रहा। मनुष्य अपनी झूठी प्रशंसा पाने के लिए, कुछ भी करने के लिए तैयार है।अब बात आती है, जयनारायणजी ने उल्लूओं को ही क्यों मुख्य पात्र बनाकर अपने उपन्यास का कथानक रचा?

क्यों उन्होंने चमगादड़,गीदड़,मकड़ी,लकडबग्गे जैसे जंतुओं को उल्लूओं के मित्र होने की संज्ञा दी? या क्यों उन्होंने विभिन्न घटनाओं के माध्यम से, मनुष्य के संदर्भ में अन्य जानवरों के विचारों से, अपने कथानक को विस्तार दिया?

जब कोई भी लेखक जीव-जंतुओं को माध्यम बनाकर अपना कथानक उसके इर्द-गिर्द बुनता है, तब इस प्रयोग के पीछे एक बहुत सोची समझी हुई, सुयोजना होती है। जिसके माध्यम से लेखक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आज की बिगड़ती स्थितियां और परिस्थितियों को सामने लाना चाहता है।उपन्यास में पारिवारिक,सामाजिक और राजनैतिक प्रपंचों को भी दर्शाया गया है। जानवरों के विचार मनुष्य के क्रिया-कलापों पर व्यंग्य करते हुए नजर आते हैं।

जैसा की हम जानते हैं कि धन की लोलुपता और अपने स्वार्थों को हर कीमत पर सिद्ध करना, जितना बढ़ता गया है, हम प्रकृति के साथ खेलते गए। ऐसे में हमारा पारिस्थितिकी तंत्र पूरी तरह से गड़बड़ा गया है।जहाँ धन की बात आती है, वहाँ धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मीजी की बात भी आती है, जिनकी सवारी उल्लू है। कहते हैं जब व्यक्ति अत्याधिक स्वार्थों की पूर्ति में लग जाता है, उसका विवेक फिर जाता है। उल्लू मूर्खता का प्रतीक है।

कहते हैं उल्लू जिसकी बुद्धि पर सवार हो जाता है, उसकी बुद्धि फिर जाती है। उपन्यास में उल्लूओं से ही विमर्श करवाया गया है, जिसके संगी-साथी चमगादड़,गीदड़,मकड़ी और लकडबग्गे हैं। यह उपन्यास की खूबी है। मनुष्य ने जिनके गुणों-अवगुणों के आधार पर अपने साथियों को विभिन्न उपाधियों से नवाजा, वही मनुष्य के बारे में भी बहुत कुछ सोच सकते हैं, लेखक ने कल्पना की है।

उल्लू मनुष्य के कर्मों-कुकर्मों पर विमर्श कर उसके सामने मोर्चा संभालने की बात कहते हैं।उल्लुओं का राजा एक जगह कहता है-“लगता है हमें आपस की सभी दुश्मनी भुलाकर, मनुष्य के विरुद्ध होना पड़ेगा और उसके विनाश का खाका तैयार करना पड़ेगा। एक युग वह था जब जंगल का साम्राज्य, जंगल में रहने वाले, अत्यंत बलशाली और मजबूत हुआ करते थे, और इसी अहम के चलते बस्तियों के वासियों को जंगल में आने पर बहुत तंग किया करते थे…. अब आभास हो रहा है कि सारे समीकरण बदल जाएंगे।…”यह सच है कि आज मनुष्य ने हर क्षेत्र में काफ़ी तरक्की कर ली है। पर इस तरक्की की कीमत उसने क्या चुकाई है, मनुष्य सोच नही पाया है। यह भी कहा जा सकता है कि जयनारायणजी ने जीव-जंतुओं के माध्यम से, मानव के रचे हुए प्रपंचों, चालाकियों, चालबाजियों और मुखोटों का अनावरण किया है। जिसका भुक्त-भोगी स्वयं मानव है, मगर वह इस बात को स्वीकारने में पर्दे की ओट ले लेता है।

मनुष्य की ही तरह इन जीवों के भी रिश्ते और रिश्तेदार हैं। जिनके विमर्श के माध्यम से आज की कई विकट समस्याओं को पाठकों के सामने लाया गया है। एक ओर जहाँ दिन के उजाले में मनुष्य नित नए खेल रचता है, वही रात के अंधेरे में यह जीव-जंतु उसके किए हुए का विश्लेषण कर, खुली चर्चा करते हैं। उल्लू समाज तय करता है कि-“हम इन मनुष्यों का भला सोचने के स्थान पर अब इनको विनाश ही विनाश की ओर धकेलेंगे। हम सारी पशु एवं पक्षी प्रजातियों को इकट्ठा कर मानव जाति के विरुद्ध मोर्चा खोल देंगे और इन्हें एक दर्दनाक अंत की ओर ले जाएंगे। इन्होंने एक हमारी प्रजाति ही नहीं वरन बहुत से प्राणियों की प्रजातियां मरुस्थल में नष्ट कर दी हैं…”परमाणु परीक्षणों और विस्फोटों के प्रतिकूल और विनाशात्मक दुष्प्रभावों के प्रति भी लेखक ने सचेत किया हैं। जीव-जंतुओं पर परमाणु बम से निकले विकिरण के प्रभाव हो या रेडियोधर्मी कचरा जो लगातार अंतरिक्ष में फैल रहा है, जिसके किसी ग्रह या उपग्रह से टकराने से मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं, उस पर भी बात की गई है।मकड़ियों के माध्यम से लेखक संस्कारों के खत्म होने की बात भी उठाते हैं, जिसमें मकड़राज कहता है-“जो संस्कारों को भूल जाते हैं वह अपनी संस्कृति से हाथ धो बैठते हैं…” “मनुष्य ने भी जाने कितने ही भाषाओं के भंडार धूल में मिला दिए।

गिले शिकवे प्राणियों में होते हैं, भाषाओं में कैसा बैर?”उल्लूओं की सभा में मानव को जवाब-तलब के लिए बुलाया जाता है। मानव के साथ-साथ उसके पालतू पशुओं को भी बुलाया जाता है। जिनके दुख-दर्द कष्ट सब उल्लू सुन रहे हैं। गायें कहती हैं-“हम तो कई बार भूख के चक्कर में बच्चों के स्त्रियों के, तथा बूढ़ों के त्याज्य मल-मूत्र तक जो डायपर में बाँध, कूड़ेदानों में फेंके गए होते हैं, खा गई हैं।”भ्रूण-हत्या जैसे जघन्य अपराध को अजन्मी बच्चियों के दर्द से उकेरा है। उल्लूओं की सभा में अखबारों में छपने वाली सिर्फ अपराधों से जुड़ी खबरों पर प्रकाश डाला गया है।मधुमक्खियां ने भी अपनी पीड़ा को उल्लूओं के सामने बयान किया है, जिसमें मनुष्य शहद के लालच में उनके छत्तों को खराब करके अंडों और लार्वा को तबाह कर देता है।

उपन्यास में कोलोन बनाने का भी ज़िक्र है। उल्लूओ का राजा इस खेल को सही नही मानता। उसकी पत्नी का भी कोलोन बना दिया जाता है। वह इसके विरुद्ध है। वह कहता है -“यह प्रकृति और प्रकृति के नियमों से खिलवाड़ है। मानव अपने लिए कुछ भी कर सकता है। कोलोन से प्राकृतिक नहीं, कृत्रिम जीवन इस पृथ्वी पर रचा जाएगा।….”पहाड़ी उल्लू के माध्यम से पर्वतीय जनजीवन और जमीन पर रहने वाले उल्लू के माध्यम से वहाँ के जनजीवन पर लेखक बात करते हैं। उल्लूओं के राजा का बेटा पहाड़ी उल्लवी से विवाह करता है। उपन्यास में उल्लूओ की प्रेम कथाएं डालकर लेखक ने रोचकता दी हैं। वैसे भी समाज मनुष्यों का हो या जीव-जंतुओं का प्रेम ही उसका आधार होता है। समय के साथ जब स्वार्थ बढ़ते है, प्रेम गुम होने लगता है। ऐसे में समाज में भावशून्यता और संवेदनहीनता बढ़ने से सारी व्यवस्थाएं गड़बड़ा जाती हैं। उपन्यास के अंत में उल्लूओं के राजा के बेटे का विवाह सकारात्मक अंत से जुड़ा है। जहाँ सभी जानवरों से उनके अधिकारों की रक्षा करने और स्वयं के सचेत रहने का आवाहन किया है, ताकि नए जंगल विकसित हो। धरती हरीभरी हो। पर्यावरण शुद्ध रहे।

हुजूडू, हुजूडू, हुजडूई,रतंच जैसे अनेकानेक शब्द और जीव-जंतुओं के नाम रोचक और असर डालने वाले हैं। उपन्यास के अंत में चरित्रों के परिचय दिये गये हैं, जो उपन्यास पढ़ने में सुविधा देते हैं। लेखक ने जिस तरह के नामों का उल्लेख किया है, कई बार भ्रम भी उत्पन्न करते हैं। उपन्यास में दिए गए चित्र भी जीवंतता देते हैं।उपन्यास को पढ़ते हुए जब अंत तक पहुंचते हैं, ऐसा लगता है कि जीव-जंतुओं की बड़ी सभा की हम शिरकत करके आए हो। जहाँ विभिन्न विषयों पर वृहद चर्चा हुई हो। जिससे बहुत कुछ देखा, सुना और सीखा हो। उसमें हुई चर्चा से मनुष्य के कृत्यों और उनके परिणामों का पता चला हो। भविष्य में मनुष्य के कृत्यों का, समाज पर क्या असर पड़ सकता है, उसे उल्लू, चमगादड़, गीदड़,मकड़ी,लकडबग्गे के माध्यम से दर्शाकर सचेत करना, एक नया प्रयोग कहा जा सकता है। उपन्यास कहीं न कहीं सिद्ध करता है कि उल्लू समझदार है और मनुष्य सच में उल्लू का पट्ठा है।

✍️ डॉ. प्रगति गुप्ता

58, सरदार क्लब स्कीम जोधपुर, राजस्थान पिन : 342011

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