Monday, January 6, 2025
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डॉ. हिमेंन्द्र बाली एक शिनाख्त

हिमाचल प्रदेश के साहित्य सुमेरू हिमेंन्द्र बाली का आविर्भाव 3 जनवरी 1968 को हिमाचल प्रदेश के शिमला जनपद की पुनीत धरा कुमारसैन के चेकुल देहात में हुआ। इनके पिता श्री सुखनंद बाली पुरातन भिषक थे और मां प्रेम दासी बाली धार्मिक प्रकृति की थी जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव इन पर भी रहा। चेकुल देहात की पुनीत धरा में पले और वहां की नैसर्गिक सुषमा को निहारना इन्हें बेहद पसन्द था। प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की तरह प्रकृति के प्रति इनका गहरा अनुराग रहा है। ये बचपन से ही कुशाग्र प्रज्ञा के थे। इन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा देहात के विद्यालय से ही सम्पूर्ण की और तत्पश्चात स्नातक की शिक्षा अर्जित करने शिमला चले गये और स्नातक व परास्नातक इतिहास, दर्शन निष्णात व विद्या वाचस्पति इन्होंने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से सम्पूर्ण की। इसके अलावा परास्नातक आंग्ल साहित्य, परास्नातक पत्रकारिता की उपाधि भी अर्जित की है। इतिहास व संस्कृति के प्रति अप्रतिम अनुराग इनमें बचपन से ही भरा था। घण्टों पहाड़ों, सरिता- नालों व नैसर्गिक सुषमा को निहारना इन्हें बेहद पसन्द था। दूसरे बुजुर्गों संग बैठना, उनसे कथाएं सुनना और अपनी जिज्ञासा को उनके समक्ष रखना और उसे शान्त करना इत्यादि इन्हें भाता था। साहित्य लेखन इनके रक्त में था और अल्पायु में ही लिखना आरम्भ कर दिया। विद्यालय अध्ययन के उस कालखंड में ही इनके आलेख व कविताएं समाचार पत्रों व प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपनी आरम्भ हो गई थी।

इनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं ” सिमटता आसमान”, हिमाचल प्रदेश का भूगोल एवं इतिहास, हिमालय गरिमा: मण्डी का सांस्कृतिक वैभव व इसके अलावा इनके सौ से अधिक शोध पत्र भारत सरकार व दूसरी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। लोक प्रिय समाचार पत्रों जिनमें वीर प्रताप, दिव्य हिमाचल, द हिन्दू के लिए ये वर्षों पूर्व से लिखते आये हैं। कुछेक काव्य संग्रह इनके प्रकाशनाधीन है जो शीघ्र ही प्रकाशित होकर सुधी पाठकों के लिए उपलब्ध होंगे।

डाॅ. हिमेंन्द्र बाली ने बतौर व्याख्याता के तौर पर अपनी सेवाएं आरम्भ की थी और बेहतर शैक्षिक योग्यता, कर्तव्यनिष्ठ होने पर इन्होंने वर्ष 2011 से प्राचार्य पद को सुशोभित किया और 2024 में उच्च शिक्षा विभाग में शिक्षा उपनिदेशक के रूप में पदोन्नति प्राप्त की। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जनपद के नाहन में बतौर शिक्षा उपनिदेशक पद पर कार्यरत हैं। इनके बचपन से लेकर व्याख्याता तक और व्याख्याता से प्राचार्य व प्राचार्य से उप निदेशक तक पहुंचने का सफर इतना सुगम नहीं रहा था, लेकिन ये कर्तव्य पथ पर अडिग रहे, चूंकि इनका संकल्प था कि मुझे कुछ नया करना है और उसके लिए श्रमरत रहे व कामयाब हुए। इन पर मेरे प्रिय व उप राष्ट्र कवि से अलंकृत रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां खरी उतरती है कि सच्च है विपत्ति जब आती है कायर को ही दहलाती है सूरमा नहीं विचलित होते क्षण एक नहीं धीरज खोते विघ्नों को गले लगाते हैं कांटों में राह बनाते हैं।

यही पंक्तियां इनके व्यक्तित्व को चरितार्थ करती है। साहित्य शिरोमणि डॉ हिमेंदर बाली वास्तव में हिमाचल प्रदेश की संस्कृति के सच्चे संरक्षक व पुरोधा है। संस्कृति का इतिहास मानवता की प्रगति का परिचायक है।मानव अपना विकास करने के लिए संसार के अन्य जीव धारी से अधिक प्रयत्नशील रहा है।मनुष्येतर प्राणियों को प्रकृति जैसा रखना चाहती है,प्राय वैसे ही हम रहते आए हैं,यही कारण है कि हमारा बोलचाल रहन-सहन इत्यादि आज से हजारों वर्ष पहले कैसा था और आज किस तरह से उसमें परिवर्तन आया है? ये कुछेक महत्वपूर्ण प्रश्न होते हैं, ऐसे में इन्हें देखना व समाधान करना ही अन्वेषण कार्य है।

डॉक्टर हिमेन्दर बाली भी इसी दिशा में कार्य कर रहे हैं। वास्तव में ये भारतीय संस्कृति के दूत हैं। संस्कृति और प्रकृति प्रेमी के रूप में इनकी अपनी ही प्रवृत्ति है। इनका मानना है कि साहित्य लेखन की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है, जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि चेकुल देहात को जाता है। प्राकृतिक दृश्यों को निहारना, वहां की खड्ड, जल प्रपात की जलराशि का प्रवाहित होना और उनसे संवाद करने की कोशिश करना इन्हें पसन्द था। इनका कहना है कि कोई अज्ञात आकर्षण मेरे भीतर एक अव्यक्त सौन्दर्य का जाल बुनकर मेरी चेतना को तन्मय कर देता था। प्रकृति व संस्कृति प्रेम इनके जीवन के आवश्यक अंग बन चुके थे, इसी कारण प्रकृति इनकी चिर सहचरी बन गई थी। इनका सम्पूर्ण साहित्य जगत स्वयं में अनुठा है। जब ये लिखना आरम्भ करते हैं तो मानों सम्पूर्ण काव्य शास्त्र इनके पीछे नतमस्तक हो पड़ता है। इनका पांडित्य, शास्त्रज्ञ, प्रतिभा सम्पन्न प्रकृति व बहुज्ञता ही इनकी अस्मिता है। डॉ बाली बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व है और उन्हें साहित्य, इतिहास, चित्रकला, वेद पुराण, श्रीमद्भागवत गीता, रामायण, महाभारत, गणित, राजनीति, नीतिशास्त्र, पत्रकारिता, विज्ञान, ज्योतिष इत्यादि सभी विषयों की अनंत जानकारी है। ये सौन्दर्य के कुशल चितेरे हैं। सौन्दर्य की विविध छंटाए इनके सम्पूर्ण साहित्य जगत में दिखाई देती है। इनके साहित्य में संकलित एक-एक शब्द पर अन्वेषण कार्य किया जा सकता है और यही कारण है कि ये थोड़े में बहुत कुछ समाहित कर जाते हैं अर्थात “गागर में सागर भर” देते हैं। इनके एक एक शब्द में जान है। इनके लिए रीतिकाल की रीतिसिद्ध काव्य धारा के महान व लोकप्रिय कवि बिहारी जी की पंक्तियां चरितार्थ करती है कि” सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर देखन में छोटे लागे घाव करे गम्भीर।

डॉ बाली की भाषा के सन्दर्भ में चिन्तन करें तो वो भी गज़ब का है। निःसंकोच कहा जा सकता है कि भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका है,वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। निश्चय ही ये सौन्दर्य बोध, लोक साहित्य व देव संस्कृति की अमरावती है और कोई भी इनके साहित्य को पढ़कर पांडित्य विधा में निपुण हो सकता है।हिमाचल प्रदेश के सन्दर्भ में बात करें तो यहां की अनमोल संस्कृति सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। संस्कृति के प्रति इनके मन में बचपन से ही अगाध प्रेम रहा है। साहित्यिक अभिरुचि और इतिहास दोनों में हिमेंदर बाली की दक्षता है। मंडी शिमला और सिरमौर के हर देहात से जुड़ी लोक कथाएं,लोक कथाएं,रीति-रिवाज, वस्त्रालंकरण,वेशभूषा,खान- पान व लोकगीत जिसमें जीवनपर्यंत सभी गीत शामिल हैं उन पर इनका अन्वेषण कार्य है और अभी भी क्रियाशील हैं। यायावरी इनकी प्रकृति है और अपनी शासकीय सेवा में व्यस्तता के चलते भी परिभ्रमण के लिए समय प्रबन्धन करना स्वयं में बड़ी बात है।हर देहात का भ्रमण करना,वहां पर बुजुर्गों से मिलना,उनसे संवाद करना या साक्षात्कार लेना व लोक संस्कृति से जुड़ी जानकारी एकत्र करना इनकी प्रकृति है और यही अस्मिता भी है। इस दिशा में ये अहर्निश श्रम साध्य है। देवस्थानों का भ्रमण,वहां पर देव मान्यताओं को जानने की जिज्ञासा, उससे जुड़े प्रश्न व उन्हें लिपिबद्ध कर सहृदय या पाठकों के समक्ष लाना इनका प्रयोजन रहा है। हर देहात से जुड़ी सुक्ष्म से सुक्ष्म वस्तुओं पर ये कार्य करते हैं। मुंशी प्रेमचन्द लिखते हैं कि लिखते वो हैं जिनके अन्दर करूणा रूपी सरिता प्रवाहित होती रहती है और वही प्रवाह बाहर निकल कर क़लम को सिंचित कर शब्द रूपी फसलें पैदा करता है। इसी फसल या अन्न से संसार के प्राणियों का पालन पोषण होता है।” प्रेमचन्द जी की ये परिभाषा इन पर भी क्रियान्वित होती है कि जब तक कुछ लिख न लूं तब तक नींद नहीं आती है। इनके मस्तिष्क में अहर्निश जिज्ञासा रहती है कि मैं कुछ न कुछ लिखूं और अब इनकी ये दिनचर्या में शामिल हो गया है। हिमाचल प्रदेश में हर क्षेत्र में ऐसे तमाम साक्ष्य हैं जो इतिहास से जुड़े हुए हैं या देवी देवताओं के चमत्कार, युद्ध इत्यादि से जुड़े ऐसे स्थान हैं जो परोक्षरूप से इंगित करते हैं कि इस देव धरा पर सचमुच ईश्वर या देवी-देवताओं का वास रहा है और इन्हीं चीजों को हिमेन्दर बाली खोजते हैं व उन पर अन्वेषण कार्य में सक्रिय हैं। शिमला जनपद के सन्दर्भ में बात करें तो यहां असंख्य देवी-देवताओं के आलय है और उनसे जुड़ी तमाम किंवदन्तियां है। ऐसे में उन किंवदन्तियों के आधार पर उन स्थलों पर पहुंचना, वहां घण्टों बैठकर चिन्तन करना, बुजुर्गों संग बतियाना और देव चमत्कारी शक्तियों व लीलाओं को जानना इनका मुख्य प्रयोजन है।मनुष्य के जीवन पर्यन्त संस्कारों में बहुत से संस्कार शामिल हैं। हर संस्कार रूपी समुद्र की गहराई में उतरना, उन्हें जानना व समझना अपरिहार्य है और इसके लिए लग्न, जिज्ञासा व अभिरुचि आवश्यक है , तभी हम उस गहराई तक पहुंच सकते हैं। इनका मानना है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हम अपनी संस्कृति को विस्मृत करते जा रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति के अनुरागी बनते जा रहे हैं और इससे हमारी अवनति हो रही है। भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे पुरातन व समृद्ध संस्कृति है। भारत वह राष्ट्र है जिसने विश्व को आकाश, धरती व पाताल से परिचित करवाया था। विश्व के हर ज्ञान विज्ञान की जड़ भारतवर्ष है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतवासी प्राचीन संस्कृति को स्वप्न की भान्ति देखते हैं। हमें विश्वास नहीं होता कि प्राचीन भारतवर्ष की समता विश्व का कोई भी राष्ट्र नहीं कर सकता था, किन्तु विस्मृत कर चुके हैं जो कि सत्य है। भारतवर्ष का हर देहात ज्ञान का एक कुआं है और सम्पूर्ण भारतवर्ष तो ज्ञान विज्ञान का महासागर है।

हिमेन्दर बाली का मानना है कि भारतवर्ष के सबसे बड़े विश्वविद्यालय हमारे देहात ही है जहां पर अमूल्य ज्ञान है और सबसे बड़े प्रोफेसर हमारे बुजुर्ग है जिनके पास ज्ञान का अनंत खजाना है और उसे हम उनके पास बैठने से अर्जित कर सकते हैं लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि हममें वो चेतना नहीं है जिसकी आवश्यकता है।वर्तमान तरूण पीढ़ी नशे की आदी बन चुकी है।आज का तरूण वर्ग नशे के इस जंजाल में पूरी तरह से संलिप्त हो चुका है। इनका मानना है कि बच्चों में अपनी संस्कृति व लोक साहित्य के प्रति अप्रतिम अनुराग उत्पन्न करना अभिभावकों का मूल कर्तव्य है। संस्कृति में ही हमारे जीवन मूल्यों का वास है। यदि बच्चे अपनी संस्कृति को जानेंगे व समझेंगे तो काफी हद तक वे इन असुरी आदतों से बच सकते हैं। दुर्भाग्यवश हम बच्चों में ये सभी आदतें ढालने में विफल ही हो रहे हैं।किसी को भी अपनी संस्कृति के बारे में मालूम ही नहीं है और न ही जानने की जिज्ञासा रखते हैं।हम केवल आगे का सोचते हैं,हम कहां से चल रहे हैं, ये हम बिल्कुल भी नहीं जानना चाहते हैं।यदि हमसे कोई हमारे परदादा का नाम पूछे तो हो सकता है हमें मालूम ही न हो। दूसरे हमारी शिक्षा व्यवस्था भी वैसी ही है,हमें जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है विदेशी आक्रांता आए उन्होंने यहां पर राज किया और हमें लूटा,बस उनके बारे में अध्ययन करवाया जा रहा है।हमें भगवान श्री राम के बारे में मालूम नहीं है और उनके पिताजी के बारे में मालूम नहीं है।अगर कोई पूछे कि भगवान श्री राम की दादाजी का क्या नाम था तो हम मुक बन जाते हैं। कारण हमें इस तरह की शिक्षा मिली ही नहीं है। हाल ही में राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी है और इसमें काफी हद तक सम्पूर्ण भारतवर्ष की पुरातन शिक्षा व्यवस्था पर चिन्तन किया गया है जो भविष्य के बेहतर व स्वर्णिम भविष्य की ओर इंगित करता है। हिमेन्दर बाली सभी अभिभावकों से आह्वान करते हैं कि अपने बच्चों को विलायती शिक्षा अवश्य दीजिए, लेकिन अपनी संस्कृति, अस्मिता से सम्बन्ध तोड़कर नहीं। अभिभावकों को चाहिए कि अपने बच्चों को गांव की मिट्टी की महत्ता, बुजुर्गों का सम्मान, उनके संग बैठना, बतियाना और ज्ञान अर्जित करना ऐसी तमाम आदतें ढालने का प्रयास करें ताकि वो अपने जीवन की सही दिशा का चयन कर उस पर अग्रसर हो सकें। चूंकि भारतवर्ष का युवा ही भविष्य है और भविष्य में ये युवा शक्ति ही भारत वर्ष का संचालन करेगी तो ऐसे में आवश्यक है कि शैशव काल से ही बच्चों में भारतीय जीवन पद्धति के अनुरूप संस्कारों का निर्वहन करें व उसे क्रियान्वित करवाने में मदद करें, वही सच्ची भारतीयता है।अतः कह सकते हैं कि हिमेन्दर बाली हिमाचली साहित्यकारों की श्रृंखला में एक बड़ा नाम है। हिमाचली संस्कृति को संरक्षित संवर्धित करने में इनका असाधारण योगदान है। इनकी रचना धर्मिता लगभग चार दर्शकों से क्रियाशील हैं और अनवरत साहित्य साधना में लीन हैं। वर्तमान में इनके साहित्य जगत पर अनेकों अनुसन्धित्सु अपना शोध कार्य कर रहे हैं। मृदु भाषी व कालजयी विद्वान हिमेन्दर बाली वास्तव में एक लोकप्रिय लोक साहित्यकार, संस्कृति अनुरागी, इतिहासकार, समीक्षक, चिन्तक व अवबोधक है। यदि हमें हिमाचल प्रदेश के बारे में जानना व समझना हो तो इनके साहित्य जगत पर दृष्टिपात करना चाहिए।

✍️ छविन्दर शर्मा, भाषा अध्यापक
शासकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला बड़ागांव (कुमारसैन)

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