✍️ डॉ कर्म सिंह आर्य
अमेरिका से समाज सेवक बनकर आया एक व्यक्ति शिमला के ग्रामीण क्षेत्र कोटगढ़ में आकर हिंदुओं को ईसाई बनाने के काम में जुट जाता है और उसका लक्ष्य रहता है, भोले-भाले लोगों को किसी न किसी प्रकार से उनका धर्म बदलकर उन्हें ईसाई बनाया जाए। इसमें धीरे-धीरे सफलता भी मिलने लगती है। यह व्यक्ति था – सैमुअल इवांस स्टोक्स, जो अमेरिका के फिलाडेल्फिया में 16 अगस्त 1882 को एक प्रसिद्ध व्यापारिक घराने में जन्म लेता है। इनके पिता सेमुअल इवांस स्टोक्स सीनियर तथा माता फ्लोरेंस स्टोक्स थी, जो ईसाई धर्म के पक्के अनुयाई और अमेरिकी क्वेकर सोसायटी के सदस्य रहे। इसलिए सेमुअस इवांस स्टोक्स के जीवन पर ईसाइयत का गहरा प्रभाव था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा फिलाडेल्फिया के वाईएमसीए नामक स्कूल से तथा स्नातक की शिक्षा भी फिलाडेल्फिया एक धार्मिक महाविद्यालय से करने का उन्हें मौका मिला।
स्टोक्स की रुचि शुरू से ही धर्म के प्रचार में थी। उनकी मुलाकात डॉ. कारलेन से हुई जो उस समय भारत में शिमला हिल्स के सुबाथू में अपनी पत्नी के साथ एक कुष्ठ गृह चला रहे थे। डॉ. कारलेटन ने भारतीयों की दयनीय स्थिति को देखते हुए स्टोक्स से की चर्चा की और स्टोक्स भी भारत आने के लिए तैयार हों गए।
जनवरी 1904 में 22 वर्ष की अवस्था में स्टोक्स भारत आए और उन्होंने अमेरिकन कवेकर परिवार के प्रभाव से एक मिशनरी के रूप में ईसाई धर्म का प्रचार करना यहां शुरू किया। स्टोक्स ने भारत में आने पर यहां की धर्म संस्कृति जीवन पद्धति और सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन किया। उन्होंने जहां भारत में अशिक्षा और गरीबी को देखा। पुनर्जागरण आंदोलन में आर्य समाज की विचारधारा का भी उन पर गहरा प्रभाव रहा। 1905 में जब कांगड़ा में भूकंप आया तो स्टोक्स भी सेवा कार्य के लिए वहां गए। कांगड़ा में उस समय के आर्य समाज संगठन द्वारा जो राहत कार्यों का संचालन किया गया और जिस तरह से आर्य समाज के लोगों ने भूकंप से प्रभावित लोगों का बचाव करके पुनर्वास का कार्य किया उससे स्टोक्स काफी प्रभावित हुए।
इसके बाद सुबाथू में कुछ दिन तक वह अपना स्वास्थ्य खराब होने के कारण रहे और जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से कोटगढ पहुंचे। भारत के लोगों की दीनहीन अवस्था को देखकर के जहां वे समाज सेवा के लिए समर्पित रहे वहीं वैचारिक तौर पर भी दिन प्रतिदिन आर्य समाज के नजदीक आते गए।
फरवरी 1960 में गुजरांवाला में एक धार्मिक सम्मेलन में स्टोक्स को वैदिक दर्शन को समझने का मौका मिला। यहां उनकी मुलाकात आर्य समाज के महात्मा मुंशी राम से हुई और वे गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के प्रति भी उत्साहित हुए तथा क्रिश्चियन गुरुकुल खोलने का विचार व्यक्त किया और 1911 में वह गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार गए जहां महात्मा मुंशी राम ने उन्हें आर्य गुरुकुल की व्यवस्था की जानकारी दी। महात्मा मुंशीराम कालांतर में स्वामी श्रद्धानंद नाम से प्रख्यात हुए।
कोटगढ़ आकर बारूबाग में श्रीमती बेटस से उनकी जमीन जायदाद खरीद कर स्थाई रूप से वहीं रहने लगे और सत्यानंद स्टोक्स ने सामाजिक विरोध के बावजूद भी 11 सितंबर 1912 को एक पहाड़ी राजपूत क्रिश्चियन लड़की इग्निस बेंजामिन से सेंटमेरी चर्च कोड़ेगढ़ में विवाह कर लिया।
अप्रैल 1914 में अमेरिका से सब के पौधे अपने साथ ले आए और यहां एक बगीचा तैयार किया। सेब की पैदागर के बाद यहां की अर्थव्यवस्था में सुधार आया और अन्य लोगों ने भी धीरे-धीरे सेब लगना शुरू किया।
उसी समय प्लेग की महामारी फैली। प्लेग की महामारी ने भयानक रूप धारण कर लिया और छुआछूत की वजह से तेजी से फैलने लगी। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को संक्रमण होने लगा धीरे-धीरे एक परिवार, एक गांव इसकी चपेट में आने लगा। कोटगढ़ क्षेत्र में भी प्लेग की महामारी फैल चुकी थी। ऐसे में आर्य समाज का कोई भी प्रचारक, कार्यकर्ता समाज सेवा से कार्य पीछे कैसे रह सकता था। आर्य समाजी पंडित रूलिया राम ने कोटगढ़ क्षेत्र में प्लेग महामारी से पीड़ित लोगों की सेवा का कार्य ग्रहण किया। वह घरों में जाते और प्लेग से पीड़ित लोगों की जी जान से सेवा करते। उन्होंने अपनी सेवा भावना से कई लोगों के जीवन की रक्षा की।
एक बार स्टोक्स की उपस्थिति में वे एक परिवार में प्लेग पीड़ित ऐसे व्यक्ति की सेवा कर रहे थे जिसे उसके अपने परिवार के सदस्य भी घर छोड़कर चले गए थे। पंडित रूलिया राम ने मुंह पर कपड़ा बांधकर उसके गले से गिल्टी को काटा और अपने मुंह से ही पीड़ित के रिस रहे जख्म से मवाद को खींचा और बाहर फेंक दिया। स्टोक्स ने जब इस दृश्य को स्वयं देखा तो वे अत्यंत प्रभावित हुए कि एक आर्य समाजी व्यक्ति अपने जीवन की परवाह न करके दूसरे को जीवन देने में लगा हुआ है। असली जनसेवा तो यही है। बस, उनका मन बदला और उन्होंने आर्य समाज के साथ जुड़कर समाज सेवा करने का प्रण लिया।
4 सितंबर 1932 को सत्यानंद स्टोक्स ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ साधु आश्रम होशियारपुर के सन्यासी रामानंद शास्त्री की उपस्थिति में कोटगढ़ में आर्य समाज की दीक्षा ग्रहण की और वे सैमुअल स्टोक्स से सत्यानंद स्टोक्स हो गए। अपनी पत्नी का नाम प्रिया देवी रखा। उन्होंने ईसाई धर्म छोड़कर हिंदू धर्म ग्रहण करने के बाद इस क्षेत्र में ईसाइयत का प्रचार थम सा गया और अब तक जिन लोगों को इन्होंने ईसाई बना लिया था वे भी पुनः घर वापसी करके हिंदू धर्म में शामिल हो गए।
सत्यानंद स्टोक्स ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद अंग्रेजी सरकार की क्रूरता के प्रति उनके मन में विद्रोह उत्पन्न हुआ और उन्होंने स्वराज संघर्ष में शामिल होकर पहाड़ी रियासतों में चल रहे आंदोलन में शिरकत करने शुरू कर दी। महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, सरदार पटेल से संपर्क किया और कांग्रेस की सदस्यता भी ग्रहण की। गांधी ने उनको पंजाब प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनाया। दिसंबर 1920 में नागपुर में कांग्रेस का अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ जिसमें स्टोक्स ने कोटगढ़ से सदस्य के तौर पर भाग लिया।
एक बार कोटगढ़ से लाहौर कांग्रेस कमेटी की बैठक के लिए जाते हुए उन्हें 3 दिसंबर को सुबह बाघा रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया तथा लाहौर छावनी स्टेशन पर उतारकर जिला मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया जहां से उन्हें सीधा जेल में भेजा गया। सत्यानंद स्टोक्स अमेरिकी होने के बावजूद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्हें राजनीतिक कैदी के रूप में जेल में भी भेजा गया। जेल से रिहा होने पर वह फिर से स्वराज संघर्ष में जुट गए।इस समय स्वराज संघर्ष में आर्य समाज की सबसे अधिक भूमिका थी और कांग्रेस में शामिल बहुत सारे समाज सुधारक और नेता भी आर्य समाज की पृष्ठभूमि के थे।
आर्य समाज शिमला के माध्यम से सत्यदेव बुशहरी , पंडित पद्मदेव, दीनानाथ आंधी, गौरा माता , लक्ष्मण आर्य दुर्गाबाई आर्य आदि बहुत सारे क्रांतिकारी सक्रियता से कार्य कर रहे थे। इन्हें एक ओर अंग्रेजी सरकार के साथ लोहा लेना पड़ रहा था तो दूसरी तरफ रियासतों में प्रजा पर होने वाले अत्याचारों का भी विरोध करना पड़ रहा था। रियासतों द्वारा शोषण के साथ चलाई जा रही प्रथाओं का क्रांतिकारियों द्वारा घोर विरोध किया जा रहा था इनमें एक प्रमुख मुद्दा बेगार का भी था। इसलिए बेगार प्रथा के खिलाफ भी आवाज उठ रही थी। इस को प्रथा को समाप्त करने के लिए सत्यानंद स्टोक्स भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहे क्योंकि श्रम करवाना और उनको मजदूरी न देना सत्यानंद स्टोक्स को गवारा नहीं था।
जून 1921 में बुशहर की राजधानी रामपुर में बेगार प्रथा के खिलाफ एक जनसभा का आयोजन किया गया जिसमें रियासती शासन व ब्रिटिश सरकार को इस क्षेत्र में चुनौती मिली। अंग्रेजी सरकार ने स्टोक्स और उनके अन्य साथियों को रोकने का भरसक प्रयास किया परंतु क्रांतिकारियों द्वारा लगातार विरोध किए जाने के परिणामस्वरुप सत्यानंद स्टोक्स को 6 मास का कारावास दिया गया और उन्हें शिमला की कैथू जेल में रखा गया। जेल से रिहा होने के बाद फिर वे अपने कार्य में लग गए।
21 सितंबर 1921 को ब्रिटिश शासन ने कानूनी रूप से बेगार प्रथा को समाप्त कर दिया यह सब इन क्रांतिकारी, समाज सुधारकों के कठिन परिश्रम से ही संभव हो पाया था। उस समय पहाड़ों में शिक्षा की सुविधा नहीं थी। अप्रैल 1923 को कोटगढ के बारूबाग में एक प्राथमिक स्कूल की स्थापना भी सत्यानंद स्टोक्स द्वारा की गई जिसका नाम तारा स्कूल रखा गया था 1932 में इस विद्यालय को सेकेंडरी स्कूल स्तरोन्नत किया गया।
अब तक सत्यानंद स्टोक्स भारतीय दर्शन और धर्म के अच्छे जानकार बन गए थे इसलिए उन्होंने 1937 में बड़ोबाग में एक वेदमंदिर का भी निर्माण किया जिसका नाम परम ज्योति मंदिर रखा गया। इस मंदिर की दीवारों पर वेद, गीता तथा उपनिषद के श्लोक लिखवाए गए हैं जो आज भी मौजूद हैं इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है इसलिए इसका नाम वेद मंदिर रखा गया है उत्कीर्ण मंत्रों और श्लोकों का संग्रह करते हुए उनके परिवार द्वारा एक पुस्तक भी प्रकाशित की गई है।
एक स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर भारत की आजादी के लिए अपना अमूल्य योगदान देने वाले अमेरिकी व्यक्ति, जो भारत की ज्ञान परंपरा में रच बस गए थे भारत की आजादी का दिन नहीं देख पाए और 14 मई 1946 को लंबी बीमारी के बाद उन्होंने अपना देह त्याग दिया।
हिमाचल प्रदेश के स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिकारियों में तथा कोटगढ़ क्षेत्र में आज भी सत्यानंद स्टोक्स का नाम एक समाज सुधारक, सेब के जनक और स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर सम्मान पूर्वक स्मरण किया जाता है।
…✍️ डाॅ कर्म सिंह आर्य
शिमला, हिमाचल प्रदेश